गुम हो जाती हूँ मैं अक्सर
ये सोच कर ही,
क्यों हूँ मैं इस दुनिया में
जहाँ इंसानी रूप में हैं दरिंदे कई।
डरती हूँ मैं हर पल
हो ना जाये कहीं,किसी मोड़ पर अनहोनी,
अपनो के बीच में ही
मजबूर और लाचार हूँ मैं खुद ही।
ना जाने किस रूप में आ जाए मुसिबत कोई,
दोस्त या शिक्षक या फिर कोई रूप नयी,
सहम कर रह जाती हूँ,ये सोच कर ही
क्या लड़की होना ही गलती है मेरी?
-प्रेरणा
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the_spur 53w