अर्थ
बड़ी शैतान है तू
कभी अपने मुताबिक मुझे ढ़ालती
कभी दूजों को मुझसे पहचानती,
अब क्या ऐसे बनती है?
हाँ, मैं तेरी कविता हूँ।
मुझे आँखें दिखाती ?!
भूल नहीं, मुझमें पनपती,
तेरे शब्दों के श्रृँगार हेतु
मैं स्वयं को कितना निचोडती!
तभी तो बनती कविता तू।
आज कुछ तुझसे पूछती हूँ
तुझसे मैं या मुझसे तू?
तेरी अडोल, अस्पष्ट संवेदनशीलता का
मैं स्पष्टीकरण करती हूँ
समझ, मैं तेरी कविता हूँ।
किंतु तू भी तो चंट बड़ी
क्या बन जाती है खड़ी-खड़ी?
कभी शांत सरिता सी बंधती छंदों में
कभी उन्मुक्त अतुकांत रूप धरती,
शैतान, मेरी है कविता तू।
अब यह सवाल ही व्यर्थ है
तुझसे ही मैं तेरी कविता हूँ।
और तू ही तो मेरा अर्थ है
मैं तेरी, है मेरी कविता तू।
©jigna_a