©mishra_priyaanka
mishra_priyaanka
प्रेम पीड़ा पारिजात
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mishra_priyaanka 50w
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औरत की आँखो के श्रृंगारदान में
काजल तले,
कितनी बारीकी से
दबी होती है उसकी उदासियाँ
होठों ने तो
लाली की चादर तले
दबा ली अपनी ही
आवाज़
जीवनपर्यंत हेतु
सिंदूर, पुरुष प्रधान समाज द्वारा
खींची गई वो लक्ष्मण रेखा
जो सदैव ही
औरत को
पुरुषत्व का प्रदर्शन
है कराती
उसके स्वतंत्र विचारो को
मात्र
एक बिंदी
लगाकर कर दिया जाता है
शून्य
अल्हड़ से
खट्टी इमली चाटते हाथ
कंगन चूड़ियों की खनखनाहट सहित
कर दिए जाते हैं
चूल्हे चौके के सुपुर्द
और, औरत बा'खूबी
सीख लेती है
खुष्क हथेलियों को
मेंहदी से छिपाना
अब्बा के आँगन की हिरनी
अपनी चंचलता को
पायल में कैद कर
लगाती है
पराए घर के होने का
चटक महावर
मैं विस्मित सी खड़ी हो ताकती हूँ
सिंगार करती स्त्री को
औरत की
आज़ादी को, कैद करने के
कितने सारे रंग हैं!
©स्मृतिशेष -
मुकम्मल नहीं हैं चाहतें... बादलों की
यूँ टूटकर मिलने भला आता कौन है!
©mishra_priyaanka -
होंगें कहाँ मयस्सर? ये महंगे ख़्वाब हमारे...
उनकी जु़ल्फों तले हर शाम बितानी है!
©mishra_priyaanka -
फ़कत आँखे नहीं....चेहरे का नूर था
उनकी ज़ुल्फों को भी बेहद ग़ुरूर था!
©mishra_priyaanka -
यकीनन! यकीन... तब्दील हुआ है,
कहीं मिजाज़ बदले हैं तो कहीं चेहरे का नूर उड़ा है!
©mishra_priyaanka -
mishra_priyaanka 51w
#erotica .
अधर - होंठ
कस्तुरी - नाभि
जिह्वा - जीभ
इन अधरों की ख़ामोशी चूम
तुम्हारी आँखों से काजल चुरा लूँ?
बोलो प्रिय तुम्हें कैसे सजा दूूँ?
सरकूँ जो बालों से नीचे....
गर्दन पे पहुँचूं....तो निशां बना दूँ?
बोलो प्रिय तुम्हें कैसे सजा दूूँ?
ये गर्म साँसे ये धड़कता दिल...
वक्ष पर होंठों का चुंबन थमा दूँ?
बोलो प्रिय तुम्हें कैसे सजा दूूँ?
ये मृग सी देह, कंपकंपाती कस्तुरी
जिह्वा के नृत्य से, अर्धचाँद बना दूँ?
बोलो प्रिय तुम्हें कैसे सजा दूूँ?
ए बे'लिबास रूह ग़र, बे'अदब बनो
मैं चादर में सिलवटें बेहिसाब बना दूँ?
बोलो प्रिय तुम्हें कैसे सजा दूूँ?
ये अंधेरी रातें जागती बहुत हैं...
सिसकियों के शोर से झंकार बना दूूँ?
बोलो प्रिय तुम्हें कैसे सजा दूूँ?
©स्मृतिशेष...
©mishra_priyaanka -
mishra_priyaanka 52w
...
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mishra_priyaanka 52w
आपने अक्सर सुना होगा....
'मुठ्ठी में रेत कभी नहीं ठहरती' मैंने भी बचपन से सुना है!किंतु मैं?ठीक इसका विपरीत मानती हूँ!
...आप अपनी मुठ्ठी में रेत लीजिए और उसे छोड़ दीजिए, अधिकांश रेत फिसल जाएगी फिर अपनी हथेली देखिए....क्या सारी रेत गिर गई? नही कुछ चिपकी है हथेली पर है न? और वो तबतक नही हटेगी जबतक के उसे आप दोनों हाथों से नही झाड़ते!
मुठ्ठी में रेत 'प्रेम' है और हाथ प्रेमी! ये रेत आपके हाथ से कितनी भी क्यूँ न फिसल जाए...व्यक्ति क्यूँ ही न चला जाए, उसकी यादों को दशक ही क्यूँ न हो जाए? वो आपके हाथ में शेष ही रहेगा....तबतक जबतक के आप उसे झटकते झाड़ते नहीं हैं! आप स्वयं उसे दूर नहीं कर देते!
प्रेम सदैव हथेली पर बची रेत की तरह शाश्वत रहता है,इन कणों को कम या ज्यादा आँकना मूर्खता है....प्रेम को कभी किसी निश्चित पैमाने पर नहीं आँका जा सकता|
"हर मुठ्ठी में रेत शेष रहती है,
जबतक की आप उसे नहीं छुड़ाना चाहते"
©स्मृतिशेष©mishra_priyaanka
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आज फिर से बहारें छाई हैं
आज फिर उसने मेरा ख़त खोला है...
©mishra_priyaanka -
ग़र लगाऊ मैं....गले तुम्हें
तुम रूह में उतर जाना!
©mishra_priyaanka
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jigna_a 26w
मुट्ठी का कद और आकार हृदय सम है,
अपने हृदय को अपनी मुट्ठी में रखो,
औरों की नहीं।
Jignaaअस्वीकार करो उसका,
त्वरित ही,
जो निर्बल करता तुम्हें,
जो विवश करता,
तुम्हें, तुमसे ही घृणा करने को,
जिसका व्यवहार,
शक्तिहीन, तेजोहीन करता
तुम्हारी कांति को,
चाहे वो कितना ही प्रिय हो
चाहे वो तुम्हें अमृत लगता हो,
मृगजल है वो,
विष है वो,
जो निर्बल करता तुम्हें,
अस्वीकार करो उसका।
©jigna_a -
सूखी थी रेत मोहब्बत की
और मुट्ठी मेरी गीली थी
कसने में सूखी फ़िसल गयी
अब चुभती है जो सीली थी
©mrig_trishna_ -
Two liner
मुस्कुराहट तो बस एक कफ़न होता है।
दर्द तो अक़्सर सीने में दफन होता है।
14/11/21 Sunday
©sadhana_the_poetess ✍ -
anita_sudhir 26w
देव एकादशी
दोहा
प्रबोधिनी एकादशी,आए कार्तिक मास।
कार्य मांगलिक हो रहे,छाए मन उल्लास।।
चौपाई
शुक्ल पक्ष एकादश जानें।
कार्तिक शुभ फलदायक मानें।।
चार मास की निद्रा लेकर।
चेतन में लौटे दामोदर।।
श्लोक मंत्र से देव जगाएँ ।
प्रभु चरणों में शीश झुकाएँ।।
तुलसी परिणय अति पावन है।
मंत्र दशाक्षरी मनभावन है।।
भाव सुमन को उर में भरिये ।
विधि विधान से पूजन करिये।।
दीप धूप कर्पूर जलाएं।
माधव को प्रिय भोग लगाएं।।
व्रत निर्जल जब सब जन रखते।
दीन दुखी के प्रभु दुख हरते ।।
महिमा व्रत की है अति न्यारी।
पुण्य प्रतापी सब नर नारी।।
दोहा
पाप मुक्त जीवन हुआ,हुआ शुद्ध आचार।
आराधन पूजन करे,खुले मोक्ष के द्वार।।
अनिता सुधीर
©anita_sudhir -
बचपन
याद बहुत आती हैं अब भी
बचपन की वो बातें
मीठी मीठी लोरी के संग माँ
उँगली से सिर सहलाते
वो कागज की कश्ती वाली
रिमझिम सी बरसातें
खेल कूद में गुजरे दिन और
बेफिक्र नींद की रातें
छत पर चढ़ अपनी पतंग के
हम सब थे पेंच लड़ाते
नानी के घर की अमराई में
ऊंची सी पींग बढ़ाते
भरी दुपहरी छुप भइया की
कैंची साइकिल चलाते
अलग अलग गुड्डे गुड़िया की
शादी थे खूब रचाते
दादाजी से पा कर अठन्नी
तब फूले नहीं समाते
शैतानी कर भाग के घर
माँ के पीछे छुप जाते
चोट जरा सी लगती थी पर
घर को सिर पे उठाते
दादा दादी सारा दिन फिर
प्यार से थे बहलाते
छूट गये जो दिन पीछे वो
सपनों में अब आते
काश कभी कुछ देर को ही
बचपन में जा पाते
©deepajoshidhawan -
rani_shri 26w
Translation- Where even the dust of the town walls are culprit,
There the news of newspapers are printed with blood more than the ink.जहाँ मुज़रिम हों ये सारी गर्दिशें भी शहर के दीवारों की,
वहाँ स्याह से ज़्यादा खून से रंगीं हैं खबरें अखबारों की।
©rani_shri -
vinitchopra 26w
Agar Jo Aa Jaye Aansu
To Khud Poch Lena
Jo Aaye Gar Log Pochne
To Sauda Kar Lenge©vinitchopra
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एक भीड़ लिए जब तन्हाई
मुझ में से गुजरा करती है
मैं धुन ऐसी लिख जाता हूँ
खुदकुशी भी मुजरा करती है
©mrig_trishna_ -
ग़ज़ल 'असर'
बनें अनजान बेशक वो मगर उनको खबर तो है,
कि चाहे वो रहे बचते मुहब्बत का असर तो है।।
चलें तो पाँव फटते हों हवा में साँस घुटती हो,
मनाना खैर तब तुम ये कि चलने को डगर तो है।।
लुटाने को लुटा दूँ आज ही मैं जान भी उन पर,
यकीं हो बस कि उनका बाद मेरे भी बसर तो है।।
समंदर के बवंडर में फँसो तो याद रखना ये,
लगाने को सफ़ीना पार दरिया में लहर तो है।।
भले कितनी हसीं बाहर से हों' गलियां ये' सत्ता की,
लगा दे जो अमन को आग इसमें वो शरर तो है।।
'रमन' चलना सनम का हाथ जीवन में पकड़ कर तुम,
ढले सूरज तो' भी क्या डर बगल में इक क़मर तो है।।
रमन यादव
©ramaiyya -
baagad_billa 27w
दुनिया में "सब अच्छे" हैं केवल तब तक
जब तक "विचारों का आपसी टकराव" ना हो
©baagad_billa
