गीतिका
तपती धरती सम जीवन में,आस लगी जलधार की।
अंतर्मन को शीतल करने,वर्षा हो अब प्यार की।।
पंचतत्त्व से बनती काया,काम क्रोध में लिप्त है।
मार्ग प्रदर्शक पथ दिखला दो,प्रभु से एकाकार की।।
अपनी संस्कृति मानव भूला,भूल गया संकल्प को।
पालन हो अब सदाचार का,बातें हों संस्कार की।।
श्रेष्ठ जन्म मानव का मिलता,बुद्धि सदा सन्मार्ग हो।
पांच इंद्रियों को जो साधे, नींव पड़े व्यवहार की।।
ज्ञानी जन अभिमान करें जब,बढ़ा रहें संताप वो
छोड़ अहम को लक्ष्य रखें ये,सकल जगत उद्धार की।
अनिता सुधीर आख्या
©anita_sudhir
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anita_sudhir 1w
छंद-"प्रदीप"
विधान-29मात्रा 16-13 पर यति।
समान्त-आर,पदान्त-की।
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होलिका दहन
आज का प्रह्लाद भूला
वो दहन की रीत अनुपम।।
पूर्णिमा की फागुनी को
है प्रतीक्षा बालियों की
जब फसल रूठी खड़ी है
आस कैसे थालियों की
होलिका बैठी उदासी
ढूँढती वो गीत अनुपम।।
खिड़कियाँ भी झाँकती है
काष्ठ चौराहे पड़ा जो
उबटनों की मैल उजली
रस्म में रहता गड़ा जो
आज कहती भस्म खुद से
थी पुरानी भीत अनुपम।।
बांबियाँ दीमक कुतरती
टेसुओं की कालिमा से
भावना के वृक्ष सूखे
अग्नि की उस लालिमा से
सो गया उल्लास थक कर
याद करके प्रीत अनुपम।।
अनिता सुधीर
©anita_sudhir -
0नौशाद
सरल सहज व्यक्तित्व को,नमन करूँ सौ बार।
श्रद्धांजलि अर्पित तुम्हें, लिए अश्रु की धार।।
बड़ी लगन थी आपको,सीखें दोहा छन्द।
भाव लिए थे गूढ़ता,लिखे अभी थे चन्द।।
काम अधूरे थे अभी,कहाँ चले नौशाद।
हृदय विदारक ये खबर,कैसे हों आबाद।।
*सीप निकालें मोतियाँ*, कहाँ हुई वो लुप्त।
*धूप छाँव*के खेल में,हृदय पटल अब सुप्त।।
फिल में आ जाओ सभी,नित्य लगी आवाज।
सूना है अब काफिया,सूना है आगाज।।
ग़ज़ल सिखाई प्रेम से,दिया मुझे था मान।
कौन कमी पूरा करे,टूट गया अभियान।।
अनदेखे रिश्ते बने,मिला चार दिन साथ।
भुला न पाएंगे तुम्हें,छोड़ चले तुम हाथ।।
मेरी गजलों में सदा,साथ रहे नौशाद।
कैसे कह दूँ अलविदा, सदा रहेंगे याद।
अनिता सुधीर
©anita_sudhir -
anita_sudhir 4w
कविता
खुली गाँठ मन पल्लू की जब
पृष्ठों पर कविता महकी
बनी प्रेयसी शिल्प छन्द की
मसि कागद पर वह सोई
भावों की अभिव्यक्ति में फिर
कभी पीर सह कर रोई
देख बिलखती खंडित चूल्हा
आग काव्य की फिर लहकी।।
लिखे वीर रस सीमा पर जब
ये हथियार उठाती है
युग परिवर्तन की ताकत ले
बीज सृजन बो जाती है
आहद अनहद का नाद लिये
कविता शब्दों में चहकी।।
शंख नाद कर कर्म क्षेत्र में
स्वेद बहाती खेतों में
कभी विरह में लोट लगाती
नदी किनारे रेतों में
रही आम के बौरों पर वह
भौरों जैसी कुछ बहकी।।
झिलमिल ममता के आँचल में
छाँव ढूँढती शीतलता
पर्वत शिखरों पर जा बैठी
भोर सुहानी सी कविता
अजर अमर की आस लिए फिर
युग के आँगन में कुहकी।।
अनिता सुधीर आख्या
©anita_sudhir -
anita_sudhir 4w
नवगीत
गूँजता अम्बर निहारे
रक्त शोणित वीर पाकर
राष्ट्र का निर्माण कर्त्ता,
चल पड़ा अब शौर्य गाकर।।
भाव जागें देशहित में
गीत वंदेमातरम से
वंदना के श्लोक कहते
कर्म करिये फिर धरम से
ज्ञान दो माँ भारती अब
नींद से हमको उठाकर।।
कंठ गाते जोश को जब
नित नया बलिदान लिखते
प्राण फूँके पीढ़ियों ने
भारती गुणगान लिखते
प्रज्ज्वलित है यज्ञ वेदी
भूमि रज माथे चढ़ाकर।।
शस्य श्यामल हो धरा ये
स्वप्न पलते कोटि दृग में
फिर अमरता चाहती है
लक्ष्य लिखना सत्य पग में
सूर्य शशि वंदन करें फिर
मंत्र सुफलां का सुनाकर।।
अनिता सुधीर आख्या
©anita_sudhir -
anita_sudhir 5w
मुँदरी /अँगूठी
प्रेम चिन्ह संचित किये,लिए सुहानी याद।
मुँदरी की अब वेदना,सहती नित्य विवाद।।
मुँदरी में सजते रतन, बदलें नौ ग्रह चाल।
नीलम,पन्ना मूँगिया,टालें विपदा काल।।
बाँधे बंधन नेह के,ले हाथों में हाथ।
अनामिका मुँदरी सजा,चली पिया के साथ।।
हठ करती है प्रेयसी,मुँदरी दे दो नव्य।
त्रिया चरित को जानिए,खर्च करें फिर द्रव्य।।
नीर थाल में हो रहा,हार जीत का खेल।
मुँदरी की फिर हार में ,बढ़ा दिलों का मेल।।
अनिता सुधीर आख्या
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हठ करती है प्रेयसी,मुँदरी दे दो नव्य।
त्रिया चरित को जानिए,खर्च करें फिर द्रव्य।।
©anita_sudhir -
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शिवरात्रि
दोहा छन्द आधारित गीतिका
**
फाग कृष्ण चौदस मने,महापर्व शिवरात्रि।
शक्ति मिलन अध्यात्म से,महापर्व शिवरात्रि।।
शिव गौरा के ब्याह का,आया शुभ दिन आज
मंदिर मंदिर सज गए ,महापर्व शिवरात्रि ।।
चाँद विराजे शीश पर,गले सांप का हार
नीलकंठ को पूजते,महापर्व शिवरात्रि।।
दैहिक भौतिक ताप को,भोले करते नाश
बिल्वपत्र अक्षत चढ़े ,महापर्व शिवरात्रि।।
पंच तत्व का संतुलन,है शिवत्व आधार ,
वैरागी को साधिए ,महापर्व शिवरात्रि।।
आदि अंत अज्ञात है,अविरामी शिव नाथ।
कैलाशी उर में बसे ,महापर्व शिवरात्रि।।
भस्म चिता की गात पर,औगढ़ भोलेनाथ
रूप निराला पूजिए ,महापर्व शिवरात्रि ।।
अनिता सुधीर "आख्या"
©anita_sudhir -
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घूँघट
रहती मन की शून्यता,लेकर भाव प्रपात।
मर्यादा घूँघट लिए,सहे कुटिल आघात।।
अनिता सुधीर
©anita_sudhir -
anita_sudhir 6w
आधार छंद- वाचिक मदलेखा[मात्रिक]
मापनी-2221 122
समान्त- आर
पदांत- नहीं है
[गीतिका]
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#hindinamaस्त्री
स्त्री बाजार नहीं है।
वो व्यापार नहीं है।।
क्यों उपभोग किया है
वो लाचार नहीं है।।
नर से श्रेष्ठ सदा से
ये तकरार नहीं है।।
उसने मौन सहा जो
कोई हार नहीं है ।।
है परिवार अधूरा
जग आधार नहीं है
आँगन रिक्त रहे जब
फिर संसार नहीं है।
अनिता सुधीर आख्या
©anita_sudhir -
anita_sudhir 6w
गजल
**
बशर की लालसा बढ़ती नशे में चूर होता है
समय की शाख पर बैठा सदा मगरूर होता है
मशक़्क़त से कमा कर फिर निभा जो प्रीत को लेते
इनायत तब ख़ुदा करता वही मशहूर होता है
समय के फेर में उलझे नियम क्यों भूल जाते सब
बहारें लौट आती हैं यही दस्तूर होता है
रिहा अब ख्वाहिशें कर दो बड़ा है बोझ भारी ये
छुपा कर दर्द क्या जीना यही नासूर होता है
नसीबों से मिले जो भी वही दिल से लगा लेना
हो उसकी रहमतें जीवन बशर पुरनूर होता है
अनिता सुधीर आख्या
©anita_sudhir
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बहुत सोचती हूँ मैं,
क्यों कभी मुझे बदले में उतना प्यार नहीं मिलता जितना देने की मैं क्षमता रखती हूँ,
क्यों किसीको शिद्दत से जोड़ती हूँ और फिर खुद टूटती रहती हूँ,
अंदर ही अंदर,
क्यों मैं किसीके अनकहे जज़्बात भी समझ लेती हूँ और मेरी बोलती आँखें कोई नहीं पढ़ता,
खामोशी की वहीदा रेहमान पता है न?
सारें पागलों को प्यार कर, सयाना बनाया,
और अंत में खुद पागल हो गई,
नहीं, पर नहीं, मैं नहीं हो सकती,
मैं जान चुकी हूँ एक सत्य कि मैं देने आई हूँ,
मैं भाग्यशाली हूँ कि कुछ समय के लिए ही सही
मैं संभाल पाई किसीका जीवन,
शायद यही है अध्यात्म की शक्ति,
बस प्रार्थना है,
मैं कभी कमज़ोर ना पडूँ!
©jigna_a -
neelthefeel 5w
एक याद जो हैं अनकही...
ख्वाहिशों क़े आसमां मैं इश्क़ के बादल तो थे छाए.
पर वो बरसात एहसासों की ना भिगो पाई मेरी रूह कों.
पर ज़िम्मेदारियों क़े धूप क़े चलते अपनों क़े एहसानों क़े बोझ तले,
झूटी मुस्कान चेहरे पर लिए ज़िन्दगी क़े सफर में बस आगे हम चल दिए.
दिली तमन्ना तो चीख रही थी अंदर ही अंदर.
उफान पर था चाहतों का समंदर. पर मेरे मन मुताबिक क़ुछ हो ना पाया,
खो दिया मैंने खुली नज़रो क़े सामने मेरा अपना हिस्सा क़ोई,
मेरी प्यार क़ी कहानियाँ यूं नज़रों क़े सामने दम तोड़ रही थी.
बस अधमरा सा किस्सा हो जैसे क़ोई, जिसे महसूस ना होता हो क़ुछ,
वो बेकारसा शरीर का मेरे हिस्सा हो जैसे क़ोई.
मेरे हमराज़ क़ी बाहों में कभी खो ना पाया मैं,
उस दिन सें बस चैन से सो भी ना पाया मैं,
मेरा साथ चाहती थी वो, मुझसे भी साहसी थी वो.
सारी मुश्किलों सें थी वो लड़ी, मेरे सामने थी वो खड़ी.
ना किसी का खौफ़ था उसकी नज़रों में,
ना किसी क़ी फ़िक्र थी उसे पड़ी.
मुझे पाना चाहती थी वो, मेरी होना चाहती थी वो.
इसी आस में खड़ी थी वो, अपनों से भी लड़ी थी वो.
दुनियादारी की बंदिशें तोड़कर, समाज क़ी फिकरों कों छोड़कर,
किस्मतों का लिखा मोड़कर, मेरे नसीबो से लड़ने पर अड़ी थी वो!
उसे हस्ते हुए देखा था, उसे रोते हुए देखा था,
उसे चैन सें सोते हुए देखा था, उसे बच्चो मैं बच्चा होते हुए देखा था,
उसे बातों ही बातों में अरमानों क़ी दुनियां में खोते हुए देखा था!
पर उस दिन जो देखा था शायद उसकी बर्बादी थी,
देख रहा था उसे मैं टूटते हुए, साँसो क़ी बंदिशों सें उसे छुटते हुए,
शीशा जो था उसीका उसे फूटते हुए, तकदीरो सें उसीके उसे रूठते हुए,
उसके हाथों सें हाथ मेरा छुटते हुए ,
एक ऐतबार था उसे क़े मैं पुकार लूं.
दिवार थी जो राह में उसें मैं गिरा दूँ.
हर बार क़ी तरहा उसे बस मैं सवार लूं.
पुकार रही थी क़े वो बस थाम लो मुझे.
बस एक मेरा सनम है तू हूं चाहती तुझे.
बस मौका एक दें मुझें मैं खुदको वार दूँ.
जीवन हे एक जुआ तो मैं बस खुदको हार दूँ.
तू बस बता मुझे कें किस मंदिर में जाऊ मैं.
मांगू दुआँ मैं क्या ऐसा क़े तुझको पाऊं मैं.आँखों सें पढ़ रही थी वो. साँसों सें लड़ रही थी वो.
हावी हो रहा था गम उसका. ऐतबार हो रहा था क़ुछ कम उसका.
दुख रहा था मन उसका. थक चूका था तन उसका.
शांत सी खड़ी थी वो. लाश सी पड़ी थी वो.
देख रही थी मुझे जैसे मैं क़ोई अजनबी.
कह रही थी जैसे वो इंसान मैं हूं मतलबी.
रात दिन क़े मंजर थे. दिन जो उसके बंजर थे.
हंसती थी ना सोती थी. बस अकेले रोती थी.
ढूंढ़ती थी मुझेकों पर. वो अकेली होती थी.
रोंकें जब वो थक जाती. एक अकेली सोती थी.
इतना प्यार, इतनी चाहत, इतनी शिद्दत,
इतनी वफ़ा, इतना जूनून, इतना अमल,
इतनी कसक, इतनी उल्फत, इतनी बेचैनी,
ये जिद, ये फुर्कत, ये फितूर,
ये इख़्तियार, ये नूर, ये तिशनगी,
जब सोचता हूं. क्या था ये सब. तो जवाब हैं.
एक हकिकत, एक इबादत, एक जुस्तजू.
एक प्यास था मैं उसकी. एक आस था मैं उसकी.
मिलती थी उसें रांहत. पां लेजो मेरी आहट.
एक पांकसी अदब थी. कहते हैं जिसें राहत.
मुझे मानती थी सबकुछ. था मैं जो उसकी चाहत.
पर शायद लिखा था हमारे नसीबों में हमारे किसी अजीज़ का खोना .
राह देख रही थी अपनों की जिम्मेदारियां घर क़े चौराहे पर.
तो अपनी ख्वाहिशों से किनारा क़रके.
दिल अपना जख्मो से भरके बस जी रहे थे हम.
ज़हर बेरुखी का हर लम्हा ना चाहते हुए भी बस पी रहे थे हम.
बस मर रही हैं हसरतें, अब हमसफ़र ये गम.
बस मांगू मैं दुवाओं मैं, हों जिंदगी क़ुछ कम.
नजरों में जो फलक हो. उसमें जो इक झलक हो.
बस अक्स हो तुम्हारा. यही जुर्म हो हमारा.
मुझे मौत भी बुलाले. तो एक खलिश ना होगी.
चेहरा जो तू दिखादे. मुझ कों रिहा तू कर दें.
बस आखरी दफा एक मुझे अलविदा तू कह दें.
जीना मैं फिर ना चाहूं. शायद सुक़ून पाऊं.
मुझे दर्द क़ुछ तो होगा. मैं तुझको जो ना पाऊं.
आँखे तू नम ना करना. बस मुस्कुरा तू देना.
बस इक यही था कहना. मेरे गम को तुम ना सहना.
मेरी साँस यूं थमी हैं. बस मैं रिहा हुआ हूं.
तू मुझसे यूं मिली हैं. मुस्कान जो खिली हैं.
तू थी मेरी हमेशा. मैं तेरा ही रहूँगा.
क़ुछ लफ्ज़ थे जो दिल में. बस इतना ही कहूंगा.
तू थी जो मेरी मंजिल. तेरा राहगर रहूँगा...
तू थी जो मेरी मंजिल. तेरा राहगर रहूँगा...
©. -
rahat_samrat 3w
बटवारा था एक दिन घर में,
बच्चों में झगड़ा था इस बात का, कि मेरे हिस्से की रकम थोड़ी मोटी रखदो,,
तभी अंदर से एक आवाज आयी, कि बच्चों तुम्हारी बातें अगर हो गयी हो तो,
अपनी माँ और मेरे हिस्से की भी अब थोड़ी रोटी रखदो...
©rahat_samrat -
ताज़ा है ज़ख़्म
दिल पे लिए चलता हूँ
बनकर अहसास-ए-दर्द
अपने ही दिल में पलता हूँ
ये दरख़्त ये आसमाँ ये गुलशन
कहते हैं बड़े प्यार से
शाख़ों से टूटती हैं पत्तियाँ
सितारे भी टूटते रहते हैं
फूल खिलते हैं मुरझाते हैं
फ़ना होना ही सच है सृष्टि का
ज़िन्दगी का सफ़र रुकता नहीं
ना दरख़्त रोता ना आसमाँ रोता है
गुलशन भी कहाँ खिलना छोड़ता है
अश्क़ों को आँखों मे समेटे
किसी की याद को ज़हन से लपेटे
क़दम आगे बढ़ाना तो होगा
जो वक़्त ने लिखा है तक़दीर के पन्नों पर
हर्फ़ हर्फ़ सबको पढ़ाना तो होगा
वो बसंत जो गुज़र चुका है आज
वो लम्हों के सफ़र में फ़िर लौट कर आएगा
यही सच है ज़िन्दगी का
अश्क़ों से भरी निग़ाहों में
वो हर-दिल-अज़ीज़ ख़्वाब बन कर फ़िर आएगा
अल्फ़ाज़ कभी मरते नहीं
ज़िंदा रहते हैं प्रेरणा बनकर
मुस्कुराते हैं साथ साथ चलकर.
©malay_28 -
ajnabi_abhishek 3w
सभी सुधी पाठकों को होली की हार्दिक शुभकामनाएं....
जोगीरा श्रृंखला की पहली रचना आनंद लीजिये।
#Holi #Abhishek_Aznabi #hindiwritwrs @sanjeevshukla_ @anita_sudhir @raakhaa_ @sknaina @prashant_gazal @prakhar_kushwaha_dear @rani_shri @tds_sr_tbnu__shreyasi @mai_shayar_to_nahi_ @deepajoshidhawanहोली
होली खेलें देवर राजा भौजाई के संग।
चुन्नी रंगी चोली रंगी रंग दिया हर अंग।।
जोगीरा सारा रा रा रा.....
©ajnabi_abhishek -
loveneetm 3w
दिल ढूँढता जरिया है मोहब्बत में सनम,
तेरा वक्त तेरी बातें कहीं जरिया ना हो।
©loveneetm -
feelingsbywords 3w
रंग जीवन मे ज़िंदादिली को जन्म देते है, और जब कैनवास पर बिखर जाते हैं तो मन को सुकून। एक अदना सी कोशिश होली को इस पेंटिंग में जीवंत करने की।
होली उत्सव की अग्रिम हार्दिक शुभकामनाएँ
साथ ही एक गीत होली के इस रंगबिरंगे त्योहार पर-
रंग फाग के सारे मंजुल,
जो तू हो तो भाए
तेरे दर्शन बिना पिया जी,
फाल्गुन फीका जाए।।
रंग लाल से मांग भरो तुम,
गाल गुलाबी करना।
अपने आलिंगन से पिय तुम,
मुझे हिय में भरना।
मिलन हमारा रंग भरा हो,
देख रंग शरमाए।
तेरे दर्शन बिना पिया जी,
फाल्गुन फीका जाए।।
पवन बसंती उड़े रंगीली,
होकर के मतवाली।
महके भीनी भीनी बन कर,
पुष्प चूम मदवाली।
नभ की सतरंगी चुनरी को,
ओढ़ धरा मुस्काए।
तेरे दर्शन बिना पिया जी,
फाल्गुन फीका जाए।।
तुम कान्हा, मैं राधा बनकर,
रंग रास मिल खेलें।
पावन इस उत्सव पर मिलकर,
प्रेम अबीर उड़ेलें।
तुम जो आओ तो फाल्गुन में,
प्रीत पूर्ण कहलाये।
तेरे दर्शन बिना पिया जी,
फाल्गुन फीका जाए।।
-निधि सहगल विदिता.
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2122. 1212. 22/112
याद तेरी बड़ा सताती है,
और तुमको करीब लाती है।
आँख कोरी रही बता कैसे,
बात सीली कहीं अटकती है।
चाँद आधा सनम हुआ कैसे,
रात में साज़िशें पनपती है।
है हमारी खुशी छिपी उनमें,
राहतें भी वहाँ बरसती है।
आह "जिगना" नहीं निकालेगी,
तू कभी भी नहीं सिसकती है।
©jigna_a -
hindinama 3w
@feelingsbywords जी की रचनाएं पढ़ें,
हिन्दी लेखनी को बढावा दें,
निधि जी ने बहुत अच्छा लिखती है) :
हमे अपनी पोस्ट में टैग करें #Hindinamaस्याही की हर बूंद मेरे दर्द की कहानी है,
जो कभी बेसुद सी तो कभी खिलती जवानी है,
अश्क ना गिरने दिया मेरी स्याही ने कभी,
खुद पन्नों पर बह गयी कैसी ये दीवानी है!
~feelungsbywords -
️
उस नील गगन के अश्रु को,
मेरा मस्तक छू जाने दो,
फिर गूँज उठेंगे गीत यहाँ,
बरसात का मौसम आने दो।
फिर नई लताएँ झूलेंगी,
मरघट सा पतझड़ भूलेंगी,
बस वक्त को मरहम लाने दो,
बरसात का मौसम आने दो।
फिर से छुप कर के रो लूँगा,
ना तुम्हें खबर लगने दूंगा ,
उस गरज में आह छुपाने दो,
बरसात का मौसम आने दो।
उसमें ना मेरा हित होगा,
मन भी मेरा विचलित होगा,
चेहरों के रंग धुल जाने दो,
बरसात का मौसम आने दो।
फिर जलमय हर बस्ती होगी,
और जान भी फिर सस्ती होगी,
इस बाँध को बस खुल जाने दो,
बरसात का मौसम आने दो।
मेंढक जब सब नाहर होंगे,
और नाग सभी बाहर होंगे,
फिर आत्मधैर्य आजमाने दो,
बरसात का मौसम आने दो।
©abhi_mishra_
